किसान


हल चलाता तेज धुप में
मैं माँ का पेट चिरता जाता हूँ
खातिर भूख मिटाने को इस दुनिया की ,
मैं अन्नदाता कहलाता हूँ |
विडम्बना बड़ी मेरे सामने
देकर निवाला धन कुबेरों को
गरीबी नित बुलाता हूँ |
अन्नदाता होकर भी
अपने परिवार को भूखा सुलता हूँ |
ना कोई लोभ दोलत का
अपनी गरीबी पर इतराता हु
छोड़ निवाला अपना
गेरो को खिलाता हु |
भूख हरा सके मुझको
उसकी इतनी ओकात कहाँ
मुरझाया मुखमंडल भी खिलखिला देता हे जहाँ
मुझे नही है चाहत की मैं महान बनू
दलित हु मैं किसान हु
बस चाहत इतनी सी है
हर जन्म किसान बनू
हर जन्म किसान बनू ||

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